Sunday, February 9, 2014

हिंदू शब्द पर फैली कुछ भ्रान्तियो का समाधान

ये शोध पूर्ण लेख विद्वान विश्वप्रिय वेदानुरागी जी का है | हम जन हित मे उसे पुनः प्रकाशित कर रहे है |
सब को सादर नमस्ते !
यह लेख निम्न लिंक का उत्तर है |
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=719275088091522&set=a.675662945786070.1073741827.675655572453474&type=1&theater
यदि आपको (हिंदुवादियों) को हमारा इस प्रकार का लेख पसंद नहीं तो कृपा कर “हिन्दू” जैसे अशास्त्रीय, असंस्कृत, अपभ्रंश, विकारी, अशुद्ध शब्द को सही सिद्ध करने का असफल प्रयास बार-बार ना करें | यदि आप इसे सिद्ध करने के लिए प्रयास करेंगे, मंडन करेंगे, तो हम फिर पुन:-पुन: सत्य का उद्घाटन करेंगे और खंडन कर सत्य का मंडन करेंगे, करते रहेंगे |
हिन्दू शब्द को लेकर आर्य बंधुओं को कोई शंका नहीं है |
पं• चक्रपाणि त्रिपाठी जी के द्वारा संग्रहित लेख में हिन्दू शब्द को सिद्ध करने की जगह हिंदी को तोड़-मरोड़ कर सिद्ध किया | क्या पं.चक्रपाणि त्रिपाठी जी ! ८ वीं शताब्दी से पूर्व की किसी संस्कृत पुस्तक में से हिन्दू शब्द दिखा सकते हैं ?
हिंदी की उत्पत्ति भी बहुत विचित्र-विकृत ढंग से प्रस्तुत की जो की अनेक प्रश्न खड़े करती है |
यदि हिंदी शब्द का विकार इहनदी बना तो व्याकरण के किस नियम से बना ? यदि ऐसे नियम अन्य शब्दों पर भी घटाये जाएँ तो क्या उचित होगा ?
पं.चक्रपाणि त्रिपाठी जी के अनुरूप हमने भी अन्य शब्दों की तोड़-फोड़ की है :-
• अनादी शब्द का क्या अर्थ है ? अनादी शब्द बना है अ+नादी | यहाँ “अ” निषेध अर्थ में है और नादी का अर्थ है नदी का बड़ा रूप | जब नदी, छोटी हो तो उसे नदी कहेंगे और जब वह बड़ी नदी हो तो उसे नादी कहेंगे | और नादी के आगे यदि निषेध अर्थ में “अ” लग जाएगा तो बन जायेगा अनादी, जिसका अर्थ होगा छोटी नदी | इस प्रकार अनादी शब्द का अर्थ होगा छोटी नदी |
• कुलक्षणी का अर्थ होगा कुल् + लक्षण = कुल के लक्षण |
• आलोचना = आलू+चना
क्या शब्दों के अर्थ इसी प्रकार खोजे / घड़े जायेंगे ?
सृष्टि-उत्पत्ति क्रम भी अशास्त्रीय बताया गया है, दर्शनों में जो उत्पत्ति क्रम बताया गया है वह ही मान्य-उचित है |
पं.चक्रपाणि त्रिपाठी जी हिन्दुकुश को याद करते हैं और कहते हैं की “हिन्दूकुश शब्द ....का अर्थ है हिन्दू का वह स्थान जहाँ कुश ही कुश हैं” इस प्रकार के अर्थ गलत हैं | उत्तर :- जिस पर्वत को आप हिन्दू-कुश के नाम से जानते हैं उसे संस्कृत साहित्य में पारियात्र पर्वत के नाम से बतलाया गया है | इतिहास उसे पारियात्र पर्वत कहता था और बाद में यह हिन्दू-कुश के नाम से प्रसिद्ध हो गया | हिन्दू-कुश के आये कुश शब्द का अर्थ होता है क़त्ल करना | कुश शब्द फ़ारसी भाषा का है | इस कुश शब्द का सम्बन्ध संस्कृत के कुश के साथ नहीं है | इस प्रकार जिस स्थान पर हिन्दुओं (मूर्तिपूजकों) का कत्लेआम हुआ हो वह स्थान हिन्दू-कुश कहलायेगा, - जैसे खुद-कुशी | क्या यह हिन्दू-कुश शब्द/नाम/स्थान हमारे लिए गर्व का विषय / स्थान है ? क्या हम चाहेंगे कि हिन्दुओं (मूर्तिपूजकों) का कत्लेआम किया जाता रहे या किया जाये ? हिन्दू-कुश पर्वत नाम भी हिन्दू शब्द/नाम जितना ही प्राचीन है और यह विदेशी शब्द है ना की संस्कृत का |
पं.चक्रपाणि त्रिपाठी जी ने इण्डिया शब्द की भी उत्पत्ति बताई जो की गलत है|
पं.चक्रपाणि त्रिपाठी जी जिन ग्रंथों को आठवीं शती से पूर्व का बता रहें हैं वे सारे के सारे नवीन हैं |
मेरुतंत्र :- मेरु तंत्र का प्रसिद्ध श्लोक हैं |
श्लोक है :- हिन्दू धर्म प्रलोप्तारौ जायन्ते चक्रवर्तिन: |
हीनश्च दुषयप्येव स हिन्दूरित्युच्यते प्रिये ||
इसका अर्थ निम्न प्रकार बताया जाता है:- “आगामी समय में राजा लोग हिन्दू धर्म का नाश करने वाले होंगे और हे प्रिये पार्वती ! हिन्दू लोग हिंसा को दूषित करते हैं, इसलिए इनका नाम ‘हिन्दू’ है |
पाठकों के ज्ञानार्थ बता दूँ कि उपरोक्त ग्रन्थ इस देश में मुसलामानों के आने के बाद बना है | इसको बने हुए ३००-४०० वर्ष ही हुए हैं अतः हिन्दू शब्द/नाम की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए ये प्रमाण उपयुक्त नहीं है |
मेरुतंत्र एक अत्यंत परवर्ती तन्त्रग्रंथ है | उपरोक्त श्लोक मेरुतंत्र के ३३ वें प्रकरण में निम्न प्रकार आता है :-
पञ्चखाना सप्तमीरा नव साहा महाबला: |
हिन्दू धर्म प्रलोप्तारौ जायन्ते चक्रवर्तिन: ||
हीनश्च दुषयप्येव स हिन्दूरित्युच्यते प्रिये |
पूर्वाम्नाये नवशतां षडशीति: प्रकीर्तिता: ||
उपर्युक्त सन्दर्भ में हिन्दू शब्द की जो व्युत्पत्ति दी गयी है वह है ‘हीनं दूषयति स हिन्दू’ अर्थात् ‘जो हिंसा को दूषित करता है’ पर इस वाक्यांश में या श्लोक में कहीं भी हिंसा पद ही नहीं है |
‘हीनं दूषयति स हिन्दू’ का एक और अर्थ किया जाता है कि जो हीन(हीन या नीच) को दूषित समझता (उसका त्याग करता है) वह हिन्दू है | जो अधम या हीन को जाति बहिष्कृत करे वह हिन्दू |
‘हीनं दूषयति’ में हीनम् पद है, जिसका अर्थ है दुर्बल, कमजोर, अधम, नीच और दुष् का अर्थ होगा निन्दा करना या नष्ट करना, अर्थात् कमजोर को सताने वाले को ‘हिन्दू’ कहते हैं | क्या हिन्दू शब्द के समर्थकों को यह स्वीकार्य होगा ? आर्यजन तो हीनों का उद्धार और उपकार ही करते हैं | क्या कोई व्यक्ति अपने आपको ‘कमजोर का सताने वाला’ कहलवा सकता है ?
ऊपर कि व्युत्पत्ति में से जो भी सच हो, इसमें संदेह नहीं कि यह यौगिक व्युत्पत्ति अर्वाचीन है, क्यों कि इसका प्रयोग विदेशी आक्रमणकारियों के सन्दर्भ में किया गया है |
मेरुतंत्र में आये खान और मीर शब्द ही दर्शा रहे हैं की यह ग्रन्थ मुस्लिम आक्रमण के बाद की रचना है ना की प्राचीन | कुछ हिन्दुवादी, मेरुतंत्र में आये खान और मीर शब्द का यह कह कर बचाव करते हैं की हमारे ऋषि-मुनि भविष्य को देख लेते थे और उस घटना का वर्णन अपने ग्रंथों में पहले से ही कर दिया करते थे | लेकिन यदि ऐसा ही है तो फिर ऋषियों के ग्रन्थ में आये मुस्लिम प्रसंगों को हम हेय दृष्टि से क्यों देखें ??? असलियत यह है की ये ऋषियों द्वारा अपने ग्रंथों में उल्लेख नहीं किया है |
पाठकों की सामान्य जानकारी के लिए बता दूँ कि मेरुतंत्र ही वह संस्कृत का पुराना(अपेक्षाकृत) ग्रन्थ है जिसमें हिन्दू शब्द आता है और यही ग्रन्थ है जो हिन्दू-वादियों को अपने बचाव में प्रिय लगता है लेकिन मेरुतंत्र में कुछ अत्यंत आधुनिक शब्दों के व्यवहार से जान पड़ता है कि तंत्रका निर्माण आधुनिक है |
भविष्य पुराण :- आधुनिक ग्रन्थ है जिसमें सन्डे, मंडे आदि का उल्लेख है | इसी के साथ कृपा कर पढ़ें –भविष्य पुराणम् प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड २८वाँ अध्याय जिसमें लिखा है “न वदेद्यावनीं भाषां प्राणै: कण्ठगतैरपि | ||५३|| अर्थात् “प्राण के कंठ तक चले आने पर भी यावनी (मुसलमानी) भाषा के उच्चारण नहीं करना चाहिए | पर कितने दुःख कि बात है कि पं.चक्रपाणी जी इस शब्द की सिद्धि के लिए श्रम कर रहे हैं |

मेदनी कोष :- यह मेदिनी कोश भी आधुनिक कोश-रचना है अतः प्रामाणिक नहीं है, प्राचीन संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग नहीं मिलता | मेदिनिकर कृत इस मेदिनी कोष का काल १२०० ई. – १२७५ ई. के बीच माना जाता है |
हेमन्त कोषी कोष :- आधिनिक कोष है | निरुक्त या ५वीं शताब्दी के अमरसिंह विरचित “अमरकोश” में तो हिन्दू शब्द नहीं मिलता | इन हेमन्त जैसे आधुनिक कोशों में हिन्दू शब्द/नाम का होना कोई आश्चर्य नहीं है पर इन कोशों से हिन्दू शब्द / नाम की प्राचीनता सिद्ध नहीं होती बल्कि अर्वाचीनता ही सिद्ध हो रही है |
राम कोष :- आधुनिक कोष है
कालिका पुराण :- कालिका पुराण” १०वीं शताब्दी का जैन मत का ग्रन्थ है अतः यह अर्वाचीन ग्रन्थ हिन्दू शब्द की प्राचीनता सिद्ध करने में अक्षम है |
शब्द कल्पद्रुम :- आधुनिक ग्रन्थ है शब्दकल्पद्रुम कोशों में आर्य शब्द के अर्थ भी दिये गये हैं |

बृहस्पति आगम :- बृहस्पति आगम आधुनिक काल का ग्रन्थ है | बृहस्पति आगम ग्रन्थ, वह ग्रन्थ नहीं है जो कि बृहस्पति जी ने लिखा था | इतिहास में एक माननीय बृहस्पति जी हो गये हैं जो राजनीति शास्त्र के विद्वान थे | राजनीति के जिस महान् शास्त्र का उपदेश भगवान् ब्रह्मा ने दिया था, उसे विशालाक्ष शिव ने संक्षिप्त किया | उसी का अति संक्षेप बृहस्पति जी ने किया | यह शास्त्र, बार्हस्पत्य शास्त्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ | इस शास्त्र के श्लोक यत्र-तत्र उद्घृत आज भी मिलते हैं |
ख्रीष्ट एरा प्रारंभ होने के आसपास हुए वराहमिहिर जी रचित “बृहत्संहिता” का उद्धरण यदि दिया होता तो कुछ-कुछ मान्य होता लेकिन बृहस्पति-आगम तो नवीन ग्रन्थ है |
कुछ लोग बृहस्पति आगम कि इस व्याख्या के आधार पर हिन्दू धर्म का पूर्ण स्वरुप बनाते है और कहते हैं कि हिन्दू का “हि” अर्थात् हिमालय और “न्दू” का इंदु | क्या ये पूर्ण स्वरुप हैं ? पूर्ण स्वरूप तो तब बनता जब हिन्दू के “हि” “न्” और “दु” का अर्थ बताया जाता | लेकिन पूर्ण स्वरुप बनाते ही प्रश्न होता है कि क्या हिन्दू शब्द किसी अन्य शब्द का संक्षिप्तिकरण हैं क्या ? यदि हाँ तो फिर उस तर्क का क्या होगा जिसमें तर्क देने वाले कहते हैं कि ये सिन्धु शब्द का विकारी है ? दोनों तर्कों में से एक को पसंद करना होगा, दोनों नहीं चलेंगे | लेकिन प्राचीन साहित्य में ना होना भी तो हिन्दू शब्द/नाम पर प्रश्न चिह्न लगाता है |
एक संक्षिप्तिकरण और देखिये :- “हि” “न्” “दु”
“हि” अर्थात् हित ना करे वह
“न्” अर्थात् न्याय ना करे वह
“दु” अर्थात् दुष्टता करे वह
और इसका प्रमाण निम्न श्लोक है :-
हिन्दू शब्द की एक और व्याख्या देखिये जिसमें हिन्दू शब्द का निन्दित अर्थ दिया गया है |
हितम् न्यायम् न कुर्याद्यो , दुष्टतामेव आचरेत्
स पापात्मा स दुष्टात्मा , हिन्दू इत्युच्यते बुधै:||३/२१||
आत्मानम् यो वदेत् हिन्दू, स याति अधमां गतिम् |
दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा तु त हिन्दुं, सद्य: स्नानमुपाचरेत् ||७/४७||
हिंकारेण परीहार्य:, नकारेण निषेधयेत् |
दुत्कारेण विलोप्तव्य:, यस्स हिन्दू सदास्मरेत् ||९/१२||
इति कात्थक्य: शिवस्मृतौ शिव स्मृति
(जो हित और न्याय ना करे, दुष्टता का आचरण करे, वह पापी, वह दुष्टात्मा हिन्दू कहलाते हैं)
(जो व्यक्ति अपने आप को हिन्दू कहता है वह अधम गति को प्राप्त होता है और ऐसे हिन्दू को देख कर स्पर्श कर शीघ्र ही स्नान करें)
(हिं हिं करके जिसका परिहार करना चाहिए, न न करके जिसका निषेध करना चाहिए, दूत् दूत् करके जिसे दूर भगाना (नष्ट कर देना) चाहिए वही हिन्दू है इसे सदा याद रखें)
अद्भुत कोष :-हिन्दू शब्द कि व्युत्पत्ति अन्य शब्दकोशों में तो मिली नहीं पर आधुनिक कोश ‘अद्भुत कोश’ में मिल गयी |अद्भुत!! भट्टोजिदीक्षित जी ने भी ‘हिन्दू’ शब्द की सिद्धि नहीं की है और ना कहीं उल्लेख किया है |
पारिजात हरण :- कीर्तनिया शैली का सर्व प्रथम नाटक पारिजात हरण नाटक अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन मिथिलानिवासी उमापति उपाध्याय का बनाया हुआ है (१३२५ ई. के लगभग)| और कमाल की बात ये है कि ये श्लोक उस नाटक में है ही नहीं अतः इसका प्रमाण देना व्यर्थ है | उमापति मिश्र का यह नाटक संस्कृत और हिन्दी मिश्रित शैली का सर्व प्रथम प्रमाण है | इस नाटक में वार्तालाप की भाषा संस्कृत है किन्तु समस्त गीत हिन्दी में लिखे गये हैं |उमापति का जन्म दरभंगा जिले के भौर परगना के कोइलख नामक ग्राम में हुआ था और उन्होंने हरिहर देव के राजदरबार का संरक्षण प्राप्त किया | हरिहर देव का समय १३०५ से १३२४ ई.तक माना जाता है इससे सिद्ध होता है कि उमापति सन् १३२४ से पूर्व अवश्य विद्यमान थे |साहित्य में एक और पारिजात हरण नाटक का उल्लेख मिलता है जो कि शंकर देव जी का बनाया है और ये असम में १५ वीं सदी के आसपास हुए थे, यदि उपरोक्त श्लोक को इस नाटक का मान भी लें तो हिन्दू शब्द की प्राचीनता सिद्ध नहीं होती |
शांग्धर पद्दति :- आश्चर्य कि बात तो ये कि कालिका पुराण और शारंगधर पद्धति दोनों ग्रन्थ के शब्दों में लगभग समानता है, और एक शब्द ‘यवन’ का प्रयोग है | यहाँ ‘यवन’ शब्द किस सन्दर्भ में प्रयुक्त है यह विचारणीय है | शारंगधर पद्धति में तो वेदमार्ग भी शब्द है तो क्यों ना हम अपने धर्म को वेदमार्गी कहें ? उल्लेखनीय है की “शारंगधर पद्धति” १३६३ ई. की रचना है | दूसरी बात यह है की शारंगधर पद्धति में आर्यावर्त पद है और अर्वाचीन राजाओं का नाम निर्देश भी है |
माधव दिग्विजय :- आधुनिक ग्रन्थ है
वृद्ध स्मृति :- वृद्धस्मृति सच में वृद्ध है या युवा उसका भी कोई पता नहीं है | दूसरी बात ये कि वेदों के पश्चात राजनैतिक धर्म शस्त्र के पण्डित मनु हुए हैं | जिनकी स्मृति विद्यमान है | यद्यपि स्मृतियाँ संख्या में १८ हैं परन्तु सब में मनु की प्रशंसा है | इसी को श्रेष्ठ माना गया है |
इस प्रकार श्री चक्रपाणि त्रिपाठी जी ने एक भी प्रमाण प्राचीन ग्रन्थ का नहीं दिया इसलिए हिन्दू शब्द शास्त्रीय सिद्ध नहीं होता, संस्कृत शब्द सिद्ध नहीं होता |
वयं राष्ट्रे जागृयाम

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